मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो ,
इसी शहर में एक पुरानी सी इमारत और है ।
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मुनव्वर माँ के सामने कभी खुलकर नहीं रोना,
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती ।
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And this is for some of us ...

बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है ।
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ग़रीबी क्*यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है

मैं उन आंखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है
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थकी - मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियां आराम करती हैं


अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियां आराम करती हैं

And one from Rahat Saab --


उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब
चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब

जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं
चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहां अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े वपड़े, ज़ेवर वेवर सब